21 वर्षों से श्मशान घाट पर कर रहीं अंतिम संस्कार, समाज की बंदिशें तोड़ी,मजबूरी को बनाया हौसले की मिसाल…

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बिलासपुर:-समाज में जहां महिलाओं का श्मशान घाट जाना तक वर्जित माना जाता है, वहीं बिलासपुर की रेखा सिंह बीते 21 वर्षों से मुक्तिधाम में अंतिम संस्कार कराने का कार्य कर रही हैं. पति के निधन के बाद जीवन-यापन की कठिनाइयों ने उन्हें इस राह पर ला खड़ा किया. शुरुआत में उन्होंने घरेलू काम किए, लेकिन आमदनी इतनी नहीं थी कि चार बच्चों की परवरिश हो सके. मजबूरी ने उन्हें श्मशान घाट तक पहुंचा दिया, जहां उन्होंने चिता सजाने से लेकर अग्नि प्रज्वलित कराने और अस्थियां एकत्रित करने तक का जिम्मा संभाल लिया.

हालांकि, यह राह आसान नहीं था. समाज की बंदिशों, तानों और उपेक्षा का सामना करना पड़ा, लेकिन उन्होंने अपने हौसले को कमजोर नहीं पड़ने दिया. आज रेखा सिंह बिलासपुर के तोरवा मुक्तिधाम में ना सिर्फ अंतिम संस्कार कराकर आर्थिक सहारा प्राप्त कर रही हैं, बल्कि समाज की सोच बदलने की मिसाल भी बन चुकी हैं. उनका बेटा सुमीत भी कभी-कभी इस कार्य में उनका साथ देता है.

बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के लिए कर रही संघर्ष…

रेखा सिंह का सपना है कि उनके बच्चे पढ़-लिखकर एक सम्मानजनक जीवन जीएं और उन्हें इस पेशे में ना आना पड़े. रेखा कहती हैं कि श्मशान में काम करना कोई सम्मानजनक कार्य नहीं माना जाता है, लेकिन उनके पास कोई और विकल्प नहीं था. बस यही चाहते हैं कि बच्चे अपने पैरों पर खड़े हो जाए और उन्हें इस काम को ना करना पड़े. यही मेरी सबसे बड़ी कोशिश है. उनकी मेहनत और संघर्ष आज उनके बच्चों के भविष्य की मजबूत नींव रख रहे हैं

कोरोना काल में जारी रखा अपना काम…

कोरोना महामारी के दौरान जब लोग अपनों के शवों को छूने तक से डर रहे थे, तब भी रेखा सिंह ने अपनी जिम्मेदारी से पीछे हटना उचित नहीं समझा. उन्होंने बताया कि महामारी के दौरान हालात बेहद भयावह थे, लेकिन मजबूरी ने उन्हें इतना मजबूत बना दिया कि संक्रमण का डर उनके इरादों के आड़े नहीं आया. बिलासपुर का तोरवा मुक्तिधाम उस समय प्रशासन द्वारा अधिग्रहित किया गया था, जहां ना केवल शहर बल्कि आस-पास के जिलों से भी शव लाए जाते थे. रेखा रोजाना 40-50 शवों का अंतिम संस्कार कराती थीं, लेकिन, इतने करीब रहने के बावजूद उनका परिवार इस संक्रमण से अछूता रहा.

चिता सजाने से लेकर अस्थियां करती है एकत्रित…

रेखा सिंह के लिए यह काम सिर्फ एक मजबूरी नहीं, बल्कि उनकी जीविका का साधन बन चुका है. पति की मृत्यु के बाद उनके पास कोई रोजगार नहीं था और चार बच्चों की जिम्मेदारी अकेले उठानी थी. ऐसे में उन्होंने हिम्मत जुटाई और श्मशान घाट पर अंतिम संस्कार कराने का कार्य शुरू कर दिया. आज वे खुद लकड़ियां तौलती हैं, चिता सजाती हैं और दाह संस्कार पूरा होने तक वहीं बैठी रहती हैं. वे बताती हैं कि श्मशान आने वाले कुछ लोग दयालु होते हैं, कोई 500 तो कोई 1500 रुपए तक दे जाता है. इतने सालों में मैंने हजारों शवों का अंतिम संस्कार कराया है, लेकिन डर को अपने करीब नहीं आने दिया. डरेंगे तो भूखे मरेंगे. रेखा सिंह का जीवन सिर्फ संघर्ष की कहानी नहीं, बल्कि समाज की रूढ़ियों को तोड़ने की मिसाल भी है.

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